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योग का परिचय


योग का परिचय
परिचय-
          योग का वर्णन कई ग्रंथों, उपनिषदों, पुराणों गीता में किया गया है। सभी योगग्रंथों में योग के अलग-अलग रास्ते बताये गये हैं, परन्तु सभी योग का एक ही लक्ष्य है- शरीर और मन को स्वस्थ शांत बनाना। योग साधना सभी व्यक्ति के लिए वैसे ही जरूरी है जैसे- भोजन, पानी हवा। योग क्रिया केवल योगियों के लिए है, ऐसा सोचना अज्ञानता है। योगग्रंथों में योग के 8 अंगों का वर्णन किया गया है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि है। इन योगिक क्रियाओं में योगियों के लिए केवल ध्यान की अंतिम अवस्था और समाधि ही है। अन्य सभी क्रियाओं का अभ्यास कोई भी व्यक्ति कर सकता है, क्योंकि योग में आसन का अभ्यास शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए बनाया गया है। प्राणायाम से मन मस्तिष्क स्थिर स्वस्थ होता है।प्रत्याहार और धारणा में आंतरिक शक्तियों या दिव्य शक्ति की प्राप्ति के लिए मन को एकाग्र कर स्थिर किया जाता है। ध्यान के अभ्यास में सूक्ष्म शरीर आंतरिक शक्तियों पर चिंतन मनन करते हुए शक्ति को प्राप्त किया जाता है और उन शक्तियों का प्रयोग अच्छे कार्य के लिए किया जाता है। ध्यान में निरंतर लगे रहने से व्यक्ति को आलौकिक शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है। ध्यान का अभ्यास करते हुए जब व्यक्ति ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है कि उसे बाहरी संसार का कोई ध्यान नहीं रह जाता, तो वह समाधि की अवस्था कहलाती है। ध्यान में लीन होकर समाधि धारण करने वाले व्यक्ति अंतत: मोक्ष को प्राप्त करते हैं। योग क्रिया का अभ्यास 2 कारणों के लिए किया जा सकता है- सांसारिक, शारीरिक मानसिक स्वास्थ्यता तथा आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए।
          मानव जीवन स्थूल पदार्थों, संरचनात्मक अवयवों तथा सूक्ष्म अदृश्य तात्विक संचेतना का एक मिश्रण है। मानव शरीर की संरचनात्मक प्रणाली में सांस-प्रणाली, पाचन-प्रणाली, कर्णेद्रियों, नेत्र-इंद्रियों जैसी अनेक शारीरिक क्रियाएं होती है। संचेतन प्रणाली में मन और मस्तिष्क आदि क्रिया प्रणाली के अतिरिक्त कुछ आंतरिक, सूक्ष्म और अमूर्त रूप अभौतिक तत्व है। चेतन मन से जुड़ी वासनाओं, अनुभूतियों भावों की आदिम प्रवृत्तियां होती है। यह एक अंत:संचरित तंत्र के जरिए बाहरी संरचनात्मक अंगों के साथ मिलकर समूचे भौतिक शरीर की मानसिक, वाचिक (बोलना) एवं शारीरिक क्रियाओं का संचालन करता है तथा इनका मानसिक स्थिति पर तीव्र नकारात्मक एवं दूषित प्रभाव पड़ता है। इस नकारात्मकता सोच को अपने मन में परिवर्तित करना ही योग एवं ध्यान का परम लक्ष्य है।
          भारतीय संस्कृति में पुराने समय से हीं ´योग साधना´ मनुष्य के जीवन का एक अंग रहा है। ´योग साधना´ की उत्पत्ति कब हुई इसकी वास्तविक जानकारी किसी के पास नहीं हैं। कुछ योग गुरूओं का कहना है कि इसकी उत्पत्ति लगभग 500 साल पहले हुआ था तथा कुछ योग विद्वानों के अनुसार योग का प्रारंभ लगभग 2500 वर्ष पहले हुआ था। परन्तु हिन्दू धार्मिक ग्रंथ के अनुसार योग साधना का अभ्यास युगों से चला रहा है। प्राचीन समय में ऋषि-मुनि योग साधना करते हुए अपने शरीर को स्वस्थ रखते थे और फिर योग साधना से मिलने वाली अपनी लम्बी आयु में धारणा, ध्यान समाधि का अभ्यास करते हुए परमात्मा में लीन हो जाते थे अर्थात वे जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते थे। योग साधना का प्रारंभ संसार में मनुष्य के शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बनाया गया है। पहले के समय में योग साधना का अभ्यास सभी लोग करते थे, जिससे वे शारीरिक स्वास्थ्यता प्राप्त करते थे और लम्बी आयु तक जीते थे। यह योग साधना युगों से चली रही हैं।
          आज के परमाणु युग में जहां जनसंख्या से लेकर टेकनालॉजी का विकास तेजी से हो रहा है, वहीं आवश्यकता भी तेजी से बढ़ती जा रही है। विज्ञान द्वारा आज जिस तरह सभी आवश्यकतों की पूर्ति की जा रही है, वहीं मानव जीवन में उतनी ही तेजी से अनेक समस्याएं भी उत्पन्न हो रही है। आज लोग शारीरिक मानसिक दोनों ही रूप से अस्वस्थ है। लोगों में शारीरिक मानसिक अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो रहे हैं। कुछ ऐसे भी रोग है जिन्हे ठीक करना विज्ञान की पहुंच से बाहर है। चिकित्सा विज्ञान जितनी खोज करता जा रहा है, उतने ही अधिक रोग उत्पन्न होते जा रहे हैं। आज के समय में जहां लोगों के पास किसी भी कार्य को करने के लिए समय नहीं होता, वहीं दूसरी ओर लोगों को उनकी मानसिक परेशानी दूर करने की कोई सही चिकित्सा नहीं मिल पा रही है। आज के समय में कुछ ऐसे भी रोग है, जिन्हे ठीक करना अत्यंत कठिन है। चिकित्सा विज्ञान ने ऐसे रोगों के लिए चिकित्सा तो बनाई है, परन्तु वे इतनी महंगी है कि सभी लोग उसके अनुसार पैसा खर्च नहीं कर सकते हैं। आमतौर पर शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए कि जाने वाली दवाईयों के प्रयोग से लोगों को पूर्ण स्वस्थ्यता प्राप्त नहीं होती। चिकित्सा विज्ञान ने अब तक ऐसी कोई भी खोज नहीं की है, जो लोगों की मानसिक शांति प्रसन्नता दे सके। चिकित्सा विज्ञान ने कुछ ऐसे दवाईयों को बनाया है, जिससे नींद आना या बेहोशी जैसी स्थिति पैदा कर व्यक्ति को कुछ क्षण के लिए शांत किया जा सकता है। परन्तु नींद से उठने के बाद वही समस्या, वही मानसिक परेशानी उत्पन्न हो जाती है। अत: मानव जीवन में उत्पन्न सभी शारीरिक मानसिक रोगों को दूर करने का एक ही साधन है। इस साधन का उपयोग देवताओं से लेकर आम मानव भी करते आएं हैं। यह साधना है- ´योग´ योग ही ऐसी साधना है, जिससे लोग आज के वातावरण में अपने मानसिक शारीरिक स्वास्थ्य को बनाएं रख सकते हैं। योग ही ऐसा साधन है, जो लोगों को रोगों से मुक्त करा सकता है। भारत में प्राचीन काल से ही इस योग साधना का प्रयोग चला रहा है। हम जानते हैं कि पहले के लोग आज के लोगों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली, लम्बे, चौड़े स्वस्थ होते थे। उनकी आयु भी आज की अपेक्षा अधिक होती थी। इसका कारण यह है कि पहले लोगों को योग का ज्ञान था और जिनको इसका ज्ञान नहीं होता था, वे भी किसी किसी रूप में योग की भिन्न क्रिया का अभ्यास कर लेते थे। उनकी चाहे या अनचाहे रूप से की जाने वाली योग क्रिया ही उन्हे स्वस्थ लम्बी आयु प्रदान करती थे। योग से मिलने वाले लाभों का एक अन्य कारण भी है। हम जानते हैं कि विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होने का कारण वायु में मौजूद दूषित सूक्ष्म परमाणु कण तथा पेड़-पौधे का काटना होता है। वायु में प्रदूशण से शारीरिक स्वास्थ्यता और पेड़-पौधों के सम्पर्क में होने से मानसिक परेशानी बढ़ती है। लोगों के आस-पास प्राकृतिक वातावरण होने के कारण लोगों को मानसिक शांति नहीं मिल पाती। चूंकि योग का अभ्यास सीधे व्यक्ति को प्रकृति के संपर्क में लाता है। जिससे लोगों के शारीरिक स्वास्थ्यता के साथ मन मस्तिष्क को शांति एकाग्रता मिलती है। योग भारत में आदि काल से ही चला रहा है और लोग योग से मिलने वाले लाभों को समझने लगें। आज योग साधना का अभ्यास केवल भारत में ही नहीं, बल्कि चीन, जापान, रूस, अमेरिका जैसे देशों में भी हो रहा है। ऐसे देश जहां विज्ञान ने अनेक आश्चर्यजनक खोज की है वहां के लोग फिर भी वे योग चिकित्सा को मानते हैं। भारत तथा अन्य कई देशों में चिकित्सक अपनी चिकित्सा के साथ योग क्रिया का अभ्यास करने की सलाह देते हैं, जिससे लोगों में स्वास्थ्य दर बढ़ने लगी है। योग सभी व्यक्तियों के लिए लाभकारी है जैसे बूढे़, बच्चे, जवान, स्त्री, रोगी, निरोगी आदि।
          साधारण भाषा में ´योग´ जीवन को सुख शांति के साथ जीने का सबसे आसान रास्ता है। योग के अभाव में शरीर और मन अनेक प्रकार के रोगों का केन्द्र बन जाता है। योग के बिना व्यक्ति संसारिक आध्यात्मिक सुख को प्राप्त नहीं कर पाता। अत: योग को अपनाकर व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार फल को प्राप्त कर सकता है। जीवन में मिलने वाली कठिनाईयों को दूर कर सकता है। योग साधना को करने से व्यक्ति शारीरिक मानसिक रोगों को दूर कर स्वस्थ प्रसन्न रह सकता है। जिसमे जीवन की उच्च स्थिति अर्थात परमात्मा को जानने की लालसा हो वे योग के मार्ग पर बढ़ते हुए ध्यान और समाधि के द्वारा उस स्थान को भी प्राप्त कर सकता है।
भागवत गीता´ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं-
तपस्विम्य, अधिक: योगी:, ज्ञामिम्य: अपि, मत अधिक:
कमिम्य: , अधिक: योगी तस्मात योगी भव अर्जुन
भगवान श्रीकृष्ण ने योग को योगी, तपस्वी, ज्ञान और कर्मों से अधिक श्रेष्ठ माना है। भगवान श्रीकृष्ण महाभारत में ´गीता´ का पाठ सुनाते हुए अर्जुन को कहते हैं- ´´हे अर्जुन! योगी योग रूढ़ होकर मेरी अर्न्तात्मा में प्रवेश कर जाता है अत: तुम भी योगी बन जाओ।
योग क्या है?
          योग शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ´युज् समाधौ´ धातु से बना है, जिसका अर्थ ´समाधि´ होता है। ´यूज´ धातु से बना होने के कारण इसका अर्थ ´जुड़ा´ या ´मिला´ हुआ भी होता है। इसका एक अन्य अर्थ शरीर और मन की पूर्ण सजगता के साथ कार्य करना भी होता है। योग क्रिया या साधना में मनुष्य शारीरिक स्वस्थ्यता के अतिरिक्त अपने आत्म ज्ञान द्वारा ईश्वर शक्ति से जुड़ जाता है। योग साधना में आत्मा परमात्मा का मिलन होता है। इस मिलन में मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान भी शामिल होता है। एक महान व्यक्ति के अनुसार ´´ योग शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा की सभी शक्तियों को ईश्वर से जोड़ता है।´´ वे कहते हैं- ´´इसका अर्थ है बुद्धि, मन, भावना तथा इच्छा को अनुशासित करना। योग के शब्दों में यह कहा जा सकता है कि योग के द्वारा जीव आत्मा का ऐसा संतुलन जिससे कोई भी व्यक्ति जीवन की सभी स्थितियों को समान भाव से देख सके।
          योग के द्वारा मनुष्य को शारीरिक एवं मानसिक बुद्धि के विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक ज्ञान भी प्राप्त होता है।
          योग के कई अर्थों में बताया गया है। योग का अर्थ है चित्त (मन) की चंचलता को रोकना अर्थात योगाश्चित्तवृत्ति को रोकना आदि योग है। योग की परिभाषा नागोजि भटठ् इस तरह देते हैं अंत:करण की वृत्तियों का लय ही योग है अर्थात शरीर को चलाने वाले मन को वश में करना ही योग है। सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात भेद से योग 2 प्रकार का होता है- ध्येय तत्व का समीचीन नया साक्षात्कार जिस समाधि में हो वह सम्प्रज्ञात है। सम्प्रज्ञात समाधि सबीज नामों से भी जानी जाती है। दूसरे शब्दों में योग वह है, जिसमें ध्येय साक्षात्कारारब्ध निरोध रूप मन की अवस्था का नाम सम्प्रज्ञात योग है।
         कुछ ऐसे भी योग के रचनाकार हैं, जो योग का अर्थ अन्य रूप में देते हैं। हठयोग के अध्ययन करने वाले लिखने वाले योग के कुछ अन्य ही अर्थ भी बताते हैं। योग का वर्णन करते हुए कहा गया है कि योग को आत्मा परमात्मा को से जुड़ना कहना गलत होगा, क्योंकि दर्शन मतानुसार नींव आत्मा अलग-अलग वस्तु नहीं है और आत्मा परमात्मा का जो भेद होता है, उसे बांटा नहीं जा सकता। अत: यह भेद औपाधिक (गलत, छल) है, क्योंकि चेतन त्वेन तो एक ही है। अविद्या के द्वारा जो भेद होता है, वह योग के अभ्यास करते हुए समाधि के द्वारा निवृत्ति हो जाने पर चेतना में भेद नहीं रह जाता जैसे ´वेदान्त दर्शन´ में लिखा गया है- घटाकोष और मठाकाश की उपाधिरूप घट और मठ नष्ट हो जाने पर एक महाकोष ही रह जाता है। अत: जीव के अन्दर के संसारिक जीवत्व) भाव खत्म होकर ब्रह्मात्व (परमात्मा, ईश्वर) भाव में लीन हो जाना ही योग है। योग के द्वारा मानव आम जीवन से ऊपर उठकर व्यवहार करता है तथा योग से मनुष्य का मन और आत्मा (सूक्ष्म शरीर) परमात्मा (ईश्वर) में मिलकर एक हो जाता है। इसलिए योग को आत्मा और परमात्मा का एक होना कहा गया है।
          योग ग्रंथ में योग के 8 अंगों को बताया गया है। योग के सभी क्रिया का पूर्ण रूप से करते हुए मन की चंचलता पर नियंत्रण करते हुए असम्प्रज्ञात समाधि तक पहुंचकर अपने चैतन्य स्वरूप को चेतना में लगा देना ही योग है।
          प्राचीन ऋषि-मुनि जड़ चेतन (जीव और निर्जीव) दोनों में एक ही तत्व का होना मानते हैं। मनुष्य के अन्दर एक आत्मा तत्व होता है, जिसे चेतना कहते हैं। यह चेतना तत्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ईश्वर से जोड़ता है। जब योग के द्वारा मनुष्य के अन्दर की चेतन तत्व (आत्मा) ब्रह्माण्ड के चेतन तत्व (ईश्वर) से मिल जाता है, जिससे मनुष्य की शारीरिक एवं आत्मिक शक्ति हजार गुना अधिक हो जाती है।
भागवत गीता´ में योग का वर्णन-
´कर्मस कोशलं योगा´
अर्थात किसी काम को पूर्ण रूप से करना ही योग है। दूसरे शब्द में शरीर और मन से जो कार्य किया जाता है उसे योग कहते हैं। संसार में मौजूद कोई भी प्राणी (मनुष्य या अन्य जीव) प्रतिदिन अपने कर्म को करता है। प्रतिदिन किये जाने वाले ये कर्म मन के अनुसार, शरीर के अंगों के सहयोग से पूर्ण होते हैं और इस कर्म से मिलने वाले फल को भोगते हैं। यदि मनुष्य अच्छे कर्म करते हैं, तो अच्छा और बुरे कर्म करने पर बुरा फल पाते हैं। अत: योग मनुष्य को अपने अच्छे कर्म को सही रूप से करने और उसके अच्छे फल को भोगने की मार्ग दिखाता है। ´भागवत गीता´ के अनुसार यही योग है।
          उपनिषदों के अनुसार योग संचेतन की वह उच्च स्थिति है, जिसमें मस्तिष्क एवं बुद्धि सभी गतिविधियां रुक जाती है।
     स्वामी शिवानंद ने योग का वर्णन करते हुए स्पष्ट रूप से कहा है-   ´´योग मन, वचन कर्म का सामंजस्य तथा एकीकरण या मस्तिष्क, हृदय और हाथों का एकीकरण है´´ इस प्रकार स्वामी सत्यानंद सरस्वती योग को स्पष्ट करते हुए कहते हैं´´ मानव के शारीरिक मानसिक सामंजस्यता से अन्य सकारात्मक सदगुण उत्पन्न होते हैं। इस सभी से योग की अनेकानेक परिभाषाएं उभरती हैं´´ नीचे ´भागवत गीता´ के योग खंड से चुनी गई परिभाषा दी जा रही है-
          ´योग सफलता और असफलता के प्रति स्थिति प्रज्ञात होता है।
          ´योग कार्य की दक्षता निपुणता होता है।´
          ´योग जीवन का सर्वोच्च सफलता है।´
          ´योग दु:खनाशक होता हैं।´
योग को साधारण रूप में संचेतना, रचनात्मकता, व्यक्तित्व विकास तथा स्वयं के विज्ञान तथा शरीर मस्तिष्क के विज्ञान के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है। सभी व्यक्तियों के लिए योग का अर्थ अलग-अलग हो सकता है फिर भी यह तथ्य पूर्णत: स्पष्ट है कि योग का सम्बंध मानव के शरीर, बुद्धि तथा संचेतन के समान्वित रूप से रहता है।
          योग के द्वारा मन के विचारों को स्थिर कर आत्मा में लीन करना ही योग है। शरीर में मौजूद मन भी शरीर के अन्य अंगों की तरह कार्य करता है, परन्तु मन का संचालन संसारिक वस्तुओं से होने के अतिरिक्त आत्मा तत्व से भी जुड़ा होता है तथा मन का संचालन उसी सूक्ष्म तत्व आत्मा से क्रियाशील रहती है। मन ही आत्मा को बाहरी विषयों को आत्मसात करने के लिए प्रेरित करता है। मन हर समय अपना कार्य करता रहता है तथा यह चंचल एवं चलायमान है। मन हमेशा इधर-उधर भटकता रहता है। मन सम्पूर्ण शरीर से एक सथा जुड़ा रह सकता है।
´महर्षि पतंजली´ के अनुसार ´योगाश्चित्त वृति निरोध´ अर्थात मन के स्वभाव, मन की चंचलता को बाहरी वस्तुओं में भटकने से रोकना या शांत करना ही योग है।   
          पतंजलि के योग दर्शन के अनुसार चित्तवृतियो (मन के विचार) को क्रमश: स्थिर एवं एकाग्र करते हुए मन को निस्पन्द स्थिति में लाना होता है। यह चित्त अपनी सत्य, स्वाभाविक स्थिति एवं पवित्र स्थिति में आने या रहने की हमेशा कोशिश करते रहते हैं। परन्तु इन्द्रियां मन को खींचती रहती है। संसारिक वस्तुओं से मन को हटाकर मन को आत्मा में लीन करना (लगाना) ही योग है। योग ही ऐसा साधन है जिससे मन को नियंत्रित कर चेतन आत्मा का दर्शन (देखना) कर सकता है।
आत्मा और परमात्मा को जोड़ने के लिए योग के 8 अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
          योग साधना की अनेक क्रियाएं होती है, परन्तु योग के सभी क्रियाओं का लक्ष्य एक ही होता है। जिस तरह पर्वतों से निकलने वाली नदियों का नाम अलग-अलग होता हैं और बहने के रास्ते अलग-अलग होते हैं परन्तु अंत में वे सभी समुद्र में जाकर मिल जाती है। समुद्र में मिलने से जिस तरह नदी का अपना कोई अस्तित्व नहीं रह जाता और वह समुद्र का हिस्सा बन जाती है, उसी तरह योग की अलग-अलग क्रियाओं को करते हुए मनुष्य ईश्वर में मिल जाता है। योग से परमतत्व की प्राप्ति होने पर मनुष्य को संसार की किसी वस्तु की इच्छा नहीं रह जाती तथा वे संसार के सभी वस्तु में ईश्वर को ही देखता है। योग से मन को सही ज्ञान प्राप्त होता है तथा मन का ध्यान आत्मा तत्व में लगने लगता है, जिससे मन को परम शांति मिलती है। इस संसार में यदि किसी को ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना है या उस सूक्ष्म शक्ति को जानना है जिससे इस संसार का संचलन होता है तथा जीवन के अस्तित्व के बारे में जानना है, तो उसे एक ही चीज से प्राप्त किया जा सकता है, वह हैं ´योग´
योग के कई प्रकार है-
1.    कर्म योग
2.    राज योग
3.    हठयोग
4.    भक्ति योग
5.    कुण्डिलिनी योग
6.    मंत्र योग
7.    ज्ञान योग
          मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी योग क्रिया को कर सकता है। इनमें किसी योग क्रिया को नियमानुसार करना ही योग है। योग का कोई भी रास्ता सरल नहीं है तथा योग के अभ्यास में धैर्य आत्मविश्वास ही इसकी सबसे बड़ी सफलता है। इन सभी मार्गो पर कठिन अभ्यास को निरंतर करते रहना जरूरी है।
भक्ति योग-
          जिस मनुष्य का स्वभाव भावना या भक्ति में लीन होना हो उसे भक्ति योग कहते हैं। भक्ति चाहे भगवान के प्रति हो, देश के प्रति हो या किसी महान व्यक्ति या गुरू के प्रति हो। 
कर्म योग-
          जो मनुष्य निरंतर अपने काम में लगे रहते हैं, उन्हे कर्मयोगी कहते हैं। योग वशिष्ट में लिखा है- ´´जब कोई मनुष्य अपने अन्दर किसी प्रकार की इच्छा या फल की आशा किये बिना ही निरंतर अपने कार्य को करता रहता है, तो उसके द्वारा किया जाने वाला कर्म ही योग होता है। इस कर्म योग के रास्ते पर चलना अधिक कठिन है। आज लोग किसी काम से पहले उसके फल की इच्छा रखते हैं अत: आज के समय में अपने में ऐसी भावना का त्याग करना ही सबसे बड़ा योग है।
ज्ञान योग-
          ज्ञान योग में ऐसे व्यक्ति आते हैं, जो शास्त्र-पुराणों का अध्ययन करते हैं और अपने ज्ञान के अनुसार ही बातों का अर्थ लगाते हैं। वे अपने ज्ञान अनुभव के बल पर ही संसार में कुछ अलग कर दिखाते हैं, ऐसे लोग ही ज्ञान योगी कहलाते हैं। इस योग में लीन रहने वाले व्यक्ति अपने बल पर कुछ विशेष भावनाएं मन में लेकर जीते हैं। ऐसे व्यक्ति के मन में ´मैं कौन हूं? मेरा अस्तित्व क्या है ? संसारिक क्रिया अपने आप क्यों बदलती रहती है? कौन है जो इस संसार को चला रहा है? ऐसे विचार उत्पन्न होने पर वे उस वास्तविता की खोज में निकल जाते हैं। इसे ही आत्मज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए जो एकाग्रता शांति भाव बनाता है और चिंतन करते हुए सत्य की खोज करता है, वे ज्ञान योगी कहलाता है।
राज योग-
          अधिक चिंतन करने वाले तथा अपने मानसिक क्रिया-प्रतिक्रिया से किसी क्रिया को गहराई से अध्ययन करने वाले लोग ही राजयोगी होते हैं। राज योगी मानव चेतना (सूक्ष्म शक्ति) को जानने की कोशिश करते है। इस योग में आत्मदर्शन की गहराईयों में उतरना होता है। योगदर्शन में योग के 8 अंग बतलाए गए है। योग के सभी अंगों को करने से व्यक्तियों को आत्मज्ञान होता है तथा वे उस सूक्ष्म शक्ति का दर्शन कर पाते हैं जिससे यह संसार क्रियाशील है और जिससे मानव का अस्तित्व मौजूद है।
हठयोग-
हठयोग क्रिया अर्थात किसी क्रिया को ´जबर्दस्ती करना´ है। जब कोई व्यक्ति अपनी चेतना इच्छा शक्ति को बढ़ाने के लिए या बुद्धि का उच्च विकास के लिए ऐसे रास्ते अपनाते हैं जो अत्यंत कठिन है, तो उसे हठयोग कहते हैं। ऋषि पंतजलि ने अपने ´योग दर्शन´ में कहा है कि अभ्यास के द्वारा चित्तवृति (मन के विचार) को रोकना ही योग है। मन के भटकने या चंचलता को स्थिर कर किसी एक दिशा में केन्द्रित करना ही योग है। फिर मन को किसी आसन में बैठकर रोका जाए या हठयोग क्रिया (जबर्दस्ती) के द्वारा ही रोका जाएं। हठयोग में प्रयोग होने वाले ´´ का अर्थ चन्द्र और ´´ का अर्थ सूर्य होता है। योग में नाक के बाएं छिद्र को चन्द्र दाएं छिद्र को सूर्य कहा गया है। दाएं छि्रद्र से बहने वाली वायु ´पिंगला´ नाड़ी में बहती है और बाएं छिद्र से बहने वाली वायु ´इड़ा´ नाड़ी में बहती है। शरीर में वायु का संचार होने से ही प्राणी जीवित रहता है। मानव जीवन में शारीरिक क्रिया सूर्य नाड़ी से बहने वाली वायु के कारण होती है और मस्तिष्क की क्रिया चन्द्र नाड़ी से बहने वाले वायु के कारण होती है। सूर्य नाड़ी की अधिक क्रियाशीलता के कारण शारीरिक क्रिया अधिक क्रियाशील रहती है। शारीरिक मानसिक क्रिया में संतुलन बनाएं रखने के लिए दोनों नासिकाओं (नाक के दोनो छिद्र) का समान होना आवश्यक है। हठयोग क्रिया का मुख्य आधार वायु प्रवाह को नाक के दोनों छिद्रों से समान रूप में प्रवाहित करना है। हठयोग के शारीरिक क्रिया को आसन कहते हैं। प्राणायाम मुद्रा भी हठयोग का अंग है। ऐसी क्रिया जिसको करते हुए व्यक्ति को अधिक कष्ट देता है, उसे हठयोग कहते हैं और इससे शारीरिक मानसिक स्वच्छता प्राप्त होती है।
कुण्डलिनी योग-
          कुण्डलिनी योग ऐसी योग क्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपने अन्दर मौजूद कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर दिव्यशक्ति ज्ञान को प्राप्त करता है। कुण्डलिनी शक्ति को अंग्रेजी भाषा में ´प्लक्सस´ कहते हैं। कुण्डलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है। यही प्राण शक्ति का केन्द्र होता है, जिससे सभी नाड़ियों का संचालन होता है। योगशास्त्रों में मानव शरीर के अन्दर 6 चक्रों का वर्णन किया गया है। कुण्डलिनी शक्ति को जब ध्यान के द्वारा जागृत किया जाता है, तब यही शक्ति जागृत होकर मस्तिष्क की ओर बढ़ते हुए शरीर के सभी चक्रों को क्रियाशील करती है। कुण्डलिनी के साथ 6 चक्रों का जागरण होने से मनुष्य को दिव्यशक्ति ज्ञान की प्राप्ति होती है। इस ध्यान के द्वारा अपने शक्ति को जागरण करना ही कुण्डलिनी योग कहलाता है।
मंत्र योग-
          भारतीय संस्कृति के हिन्दू धर्म के अनेक ग्रंथ वेद, पुराणों में विभिन्न प्रकार के मंत्रों का प्रयोग किया गया है। इनमें प्रयोग किये जाने वाले मंत्रों में अत्यंत शक्ति होती है, क्योंकि इन मंत्रों को पढ़ने से जो ध्वनि तरंग उत्पन्न होती है, उससे शरीर के स्थूल सूक्ष्म अंग तक कंपित होते हैं। विज्ञान के द्वारा अनेक परिक्षणों से यह साबित हो गया है कि मंत्रों में प्रयोग होने वाले शब्दों में भी शक्ति होती है। मंत्रों में प्रयोग होने वाले कुछ ऐसे शब्द हैं, जिन्हे ´अल्फ वेव्स´ कहते हैं। मंत्र का यह शब्द 8 से 13 साइकल प्रति सैंकेंड में होता है और यह ध्वनि तरंग व्यक्ति की एकाग्रता में भी उत्पन्न होता है। इन शब्दों से जो बनता है, उसे मंत्र कहते हें। मंत्रों का जप करने से व्यक्ति के अन्दर जो ध्वनि तरंग वाली शक्ति उत्पन्न होती है, उसे मंत्र योग कहते हैं।
         कुछ अन्य योग भी है जैसे- प्रेमयोग, लययोग, नादयोग, शिवयोग, ध्यानयोग आदि। ये सभी योग के छोटे रूप है। इन योग के किसी कार्य को पूर्ण लगन से करना भी योग ही है। भगवान का प्रतिदिन श्रद्धा भक्ति से ध्यान करना भी योग ही है। 
लययोग-
          भगवान को प्राप्त करने का सबसे आसान सरल योग है लययोग। प्राण और मन का लय हो जाना ही आत्मा का परमात्मा से मिलना है। आत्मा में ही सब कुछ लय कर देना या लीन हो जाना ही लययोग है। अपने चित्त को बाहरी वस्तुओं से हटाकर अंतर आत्मा में लीन कर लेना ही लय योग है।
नाद योग-
          जिस तरह योग में आसन के लिए सिद्धासन और शक्तियों में कुम्भक प्राणायाम है, उसी तरह लय और नाद भी है। परमात्मा तत्व को जानने के लिए नादयोग को ही महान बताया गया है। जब किसी व्यक्ति को इसमें सफलता मिलने लगती है, तब उसे नाद सुनाई देता है। नाद का सुनाई देना सिद्धि प्राप्ति का संकेत है। नाद समाधि खेचरी मुद्रा से सिद्ध होती है।
प्रेमयोग-
          व्यक्ति के मन में जब किसी कार्य के प्रति सच्ची लगन होती है, तभी प्रेम का उदय होता है। जब व्यक्ति के अन्दर प्रेम या निष्ठा अधिक दृढ़ हो जाता है, तब प्रेमयोग कहलाने लगता है। व्यक्ति के मन में ईश्वर के प्रति प्रगढ़ एवं अगाध श्रद्धा होती है। यह श्रद्धा जब अंतिम अवस्था में पहुंच जाती है, तब भगवान की प्राप्ति होती है।  



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